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कृषि और ऋषि संस्कृति का लोक-पर्व : नुआखाई

खेतों में नयी फसल के आगमन पर उत्साह और उत्सवों के साथ देवी अन्नपूर्णा के स्वागत की हमारे देश में एक लम्बी परम्परा है।  अलग-अलग मौसमों में अलग-अलग फसलों के पकने की खुशी में देश के अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग ढंग से और अलग-अलग नामों से त्यौहार मनाए जाते हैं। चारों दिशाओं में इन लोक-पर्वो की अपनी-अपनी रंगत और अपनी-अपनी रौनक होती है।

एक -दूसरे के राज्यों की सीमावर्ती लोक-संस्कृति का गहरा असर उनके सरहदी लोक जीवन पर होता ही है। लोगों में एक-दूसरे के साथ पारिवारिक, सामाजिक और सांस्कृतिक  रिश्ते भी होते हैं। एक-दूसरे की भाषा, बोली, एक-दूसरे के रीति-रिवाज और एक-दूसरे के गीत-संगीत से लोग गहराई से जुड़ जाते हैं।

लिहाजा ओड़िशा के प्रमुख लोक-पर्व ‘नुआखाई’ का सांस्कृतिक प्रभाव भी पश्चिम ओड़िशा के सीमावर्ती छत्तीसगढ़ में भी साफ देखा जा सकता है। छत्तीसगढ़ के गरियाबंद, महासमुन्द, रायगढ़, जशपुर, धमतरी सहित बस्तर संभाग के कुछ जिले भी इनमें शामिल हैं, जहाँ पड़ोसी राज्य की तरह उत्कल संस्कृति से जुड़े लाखों लोग इसे पारम्परिक रीति-रिवाजों के साथ उत्साह से मनाते हैं।

छत्तीसगढ़ जब दक्षिण कोसल के नाम से प्रसिद्ध था, तब उसके भौगोलिक क्षेत्र में वर्तमान ओड़िशा के भी कई इलाके शामिल थे। इसलिए यह कहा जा सकता है कि ‘नुआखाई’ दोनों राज्यों की साझा लोक-संस्कृति का प्रतीक है।

वैसे तो कृषि प्रधान भारत में खरीफ़ और रबी की नई फ़सलों की अगवानी में किसानों के द्वारा उत्सव मनाने की परम्परा हजारों वर्षों से काल से चली आ रही है। पंजाब में बैसाखी, केरल में ओणम,  असम में बिहू और छत्तीसगढ़ में नवाखाई इसका उदाहरण हैं। छत्तीसगढ़ में यह पर्व दशहरा या दीवाली के आस-पास मनाया जाता है।

कोरोना संकट ने हमारे लोक पर्वों की रंगत और रौनक को भी फीका कर दिया था। संकट अभी पूरी तरह ख़त्म नहीं हुआ है। लेकिन  संकटों का बीच भी मनुष्य अपनी परम्पराओं को नहीं भूलता। इस वर्ष भाद्र शुक्ल पंचमी के दिन पश्चिम ओड़िशा की लोक संस्कृति का प्रमुख पर्व ‘नुआखाई’ भी कोरोना के साये में सावधानी के साथ मनाया जा रहा है। लोग ‘नुआखाई जुहार’ और ‘भेंटघाट’  के लिए एक-दूसरे के घर आएंगे-जाएंगे।

नुआखाई का सरल शाब्दिक अर्थ है नया खाना। नुआ यानी नया। खेतों में खड़ी नई फ़सल के स्वागत में यह मुख्य रूप से ओड़िशा के  किसानों और खेतिहर श्रमिकों द्वारा मनाया जाने वाला पारम्परिक त्यौहार है, लेकिन समाज के सभी वर्ग इसे उत्साह के साथ मनाते हैं।

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में भी पश्चिम ओड़िशा के हजारों लोग विगत कई दशकों से निवास कर रहे हैं। वे हर साल यहाँ नुआखाई का त्यौहार परम्परगत तरीके से उत्साह के साथ मनाते आ रहे हैं। नुआखाई के एक दिन पहले यहाँ नये धान की बालियों के साथ चुड़ा (चिवड़ा ), मूंग और परसा पत्तों और पूजा के फूलों की बिक्री के लिए उत्कल महिलाएं पसरा लगाकर बैठी थीं। 

लेकिन पिछले साल जैसी चहल-पहल नहीं होने के कारण इन पसरा वालों में  मायूसी साफ़ झलक रही थी। अपराह्न उनसे हुई संक्षिप्त बातचीत में उनमें से कुछ ने बिक्री कम होने की जानकारी दी और कहा कि त्यौहार के दिन भी वो सुबह छह बजे से दस बजे तक पसरा लगाकर बैठेंगी, ताकि कुछ आमदनी हो सके।

पश्चिम ओड़िशा के सुंदरगढ़, झारसुगुड़ा, सम्बलपुर, बरगढ़, नुआपाड़ा, कालाहांडी,  बलांगीर, बौध और सुवर्णपुर (सोनपुर) जिलों का यह लोकप्रिय लोकपर्व अब ओड़िशा के अन्य जिलों में भी उत्साह के साथ मनाया जाने लगा है। इनमें से कुछ जिले जैसे -झारसुगुड़ा, सम्बलपुर, बरगढ़, नुआपाड़ा छत्तीसगढ़ से लगे हुए हैं। झारखंड का सिमडेगा जिले का कुछ हिस्सा भी ओड़िशा और छत्तीसगढ़  की सरहद से लगा हुआ है।

ओड़िशा में नुआखाई का इतिहास बहुत पुराना है जो वैदिक काल से जुड़ा हुआ है। लेकिन कुछ इतिहासकार जनश्रुतियों का उल्लेख करते हुए बताते हैं कि पश्चिम ओड़िशा में नुआखाई की परम्परा शुरू करने का श्रेय बारहवीं शताब्दी में हुए चौहान वंश के प्रथम राजा रमईदेव को दिया जाता है। वह तत्कालीन पटना (वर्तमान पाटनागढ़) के राजा थे। पाटनागढ़ वर्तमान में बलांगीर जिले में है। कुछ  जानकारों का कहना है कि पहले बलांगीर को ही पाटनागढ़ कहा जाता था।

रमईदेव ने देखा कि उनकी प्रजा केवल शिकार और कुछ वनोपजों के संग्रहण से ही अपनी आजीविका चलाती है और यह जीवनयापन की एक अस्थायी व्यवस्था है। इससे कोई अतिरिक्त आमदनी भी नहीं होती और प्रजा के साथ-साथ राज्य की अर्थ व्यवस्था भी बेहतर नहीं हो सकती। उन्होंने लोगों के जीवन में स्थायित्व लाने के लिए उन्हें स्थायी खेती के लिए प्रोत्साहित करने की सोची और इसके लिए धार्मिक विधि-विधान के साथ नुआखाई पर्व मनाने की शुरुआत की। कालांतर में यह पश्चिम ओड़िशा के लोकजीवन का एक प्रमुख पर्व बन गया।

वर्षा ऋतु के दौरान भाद्र महीने के शुक्ल पक्ष में खेतों में धान की नई फसल, विशेष रूप से जल्दी पकने वाले धान में बालियां आने लगती हैं। तब नई फ़सल के स्वागत में  नुआखाई का आयोजन होता है। यह हमारी कृषि संस्कृति और ऋषि संस्कृति पर आधारित त्यौहार है। इस दिन फ़सलों की देवी अन्नपूर्णा सहित सभी देवी -देवताओं की पूजा अर्चना की जाती है।

सम्बलपुर में समलेश्वरी देवी, बलांगीर-पाटनागढ़ अंचल में पाटेश्वरी देवी,  सुवर्णपुर (सोनपुर) में देवी सुरेश्वरी और कालाहांडी में देवी मानिकेश्वरी की विशेष पूजा की जाती है। नुआखाई के दिन सुंदरगढ़ में राजपरिवार द्वारा देवी शिखरवासिनी की पूजा की जाती है। राजपरिवार का यह मंदिर केवल नुआखाई के दिन खुलता है।

पहले यह त्यौहार भाद्र शुक्ल पक्ष में अलग-अलग गाँवों में अलग-अलग तिथियों में सुविधानुसार मनाया जाता था। गाँव के मुख्य पुजारी इसके लिए तारीख़ और मुहूर्त तय करते थे, लेकिन अब नुआखाई का दिन और समय सम्बलपुर स्थित जगन्नाथ मंदिर के पुजारी तय करते हैं। इस दिन गाँवों में लोग अपने ग्राम देवता या ग्राम देवी की भी पूजा करते हैं।

नये धान के चावल को पकाकर तरह-तरह के पारम्परिक व्यंजनों के साथ घरों में और सामूहिक रूप से भी नवान्हभोज  यानी नये अन्न का भोज बड़े चाव से किया जाता है। सबसे पहले आराध्य देवी-देवताओं को भोग लगाया जाता है। प्रसाद ग्रहण करने के बाद ‘नुआखाई ‘ का सह-भोज होता है।

इस दिन के लिए ‘अरसा पीठा’ व्यंजन विशेष रूप से तैयार किया जाता है। नुआखाई त्यौहार के आगमन के पहले लोग अपने-अपने घरों की साफ-सफाई और लिपाई-पुताई करके नई फसल के रूप में देवी अन्नपूर्णा के स्वागत की तैयारी करते हैं। परिवार के सदस्यों के लिए नये कपड़े खरीदे जाते हैं।

लोग एक -दूसरे के परिवारों को नवान्ह भोज के आयोजन में स्नेहपूर्वक आमंत्रित करते हैं। इस विशेष अवसर के लिए लोग नये वस्त्रों में सज-धजकर एक-दूसरे को नुआखाई जुहार करने आते-जाते हैं। गाँवों से लेकर शहरों तक खूब चहल-पहल और खूब रौनक रहती है। सार्वजनिक आयोजनों में पश्चिम ओड़िशा की लोक संस्कृति पर आधारित पारम्परिक लोक नृत्यों की धूम रहती है।

आलेख

श्री स्वराज करुण,
वरिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार रायपुर, छत्तीसगढ़

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